Hunters turned into wildlife protectors: असम के डिगबोई क्षेत्र में स्थित सरायपुंग गांव कभी वन्यजीव शिकार के लिए कुख्यात था, लेकिन आज यह वन्यजीव संरक्षण और इको-टूरिज्म असम का एक रोल मॉडल बन चुका है। इस अभूतपूर्व बदलाव के पीछे हैं डिगबोई कॉलेज के प्राणीशास्त्र के प्रोफेसर राजीब तारियांग, जिनके प्रयासों ने आदिवासी जीवनशैली को नई दिशा दी है। यह वह जगह है जहाँ Hunters turned into wildlife protectors की परिभाषा साकार हुई है।

Hunters turned into wildlife protectors जंगल के शिकारी बने रक्षक
एक समय था जब सरायपुंग के जंगलों में धनुष-बाण से लैस ग्रामीण बंदर, गिलहरी, और पक्षियों का शिकार किया करते थे। शिकार उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा था। लेकिन जब दुनिया में वन्यजीव संरक्षण एक जरूरी विषय बन गया, तो यह बदलाव सरायपुंग तक भी पहुंचा।
प्रोफेसर राजीब ने समझा कि केवल कानून या सख्ती से कुछ नहीं बदलेगा। उन्होंने समुदाय से सीधे जुड़ाव बनाया। वे दो महीने गांव में रहकर उनकी भाषा, संस्कृति और दिनचर्या का हिस्सा बन गए। उन्होंने अपनी जीप में इन्वर्टर लगाकर जंगलों और संरक्षण पर फिल्में दिखाईं, जिससे धीरे-धीरे लोगों की सोच बदली।
वैकल्पिक आजीविका की ओर बढ़ते कदम
प्रोफेसर ने महसूस किया कि शिकार की जगह ऐसा विकल्प होना चाहिए जो ग्रामीणों को आर्थिक रूप से भी मजबूत बनाए। इसी सोच के साथ उन्होंने इको-टूरिज्म मॉडल को सरायपुंग में लागू किया।
ग्रामीणों को होमस्टे चलाने, सांस्कृतिक प्रदर्शन करने और टूर गाइड बनने के लिए प्रशिक्षित किया गया। इससे न सिर्फ़ उनकी आमदनी बढ़ी बल्कि उन्हें अपनी संस्कृति और पारिस्थितिकी पर गर्व भी महसूस होने लगा।

सरायपुंग: इको-टूरिज्म का चमकता उदाहरण
आज सरायपुंग में पारंपरिक शैली में बने बांस और मिट्टी के होमस्टे पर्यटकों को प्रकृति से जुड़ने का अनुभव देते हैं। यहाँ आने वाले मेहमानों को बांस में पका चावल, ढेकिया जैसी जड़ी-बूटियाँ, और स्थानीय मछली व्यंजन परोसे जाते हैं।
ग्रामीण कलाकार अपने पारंपरिक नृत्य प्रस्तुत करते हैं, जिससे पर्यटकों को आदिवासी संस्कृति की झलक मिलती है। यह ना केवल सांस्कृतिक संरक्षण है, बल्कि एक सशक्त स्थानीय पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण भी।

असली बदलाव की कहानियाँ
सनातन मांझी, जो पहले शिकारी थे, अब होमस्टे चलाते हैं और कहते हैं,
“पहले चाय बागानों में दिहाड़ी मज़दूरी करते थे, अब अपने ही गांव में होमस्टे से साल में ₹20,000 तक की कमाई होती है।”
गोकुल तांती, जो पहले टैक्सी ड्राइवर थे, अब टूर गाइड हैं और बताते हैं,
“हर सीजन में 30 से ज्यादा पर्यटकों को पक्षी-विहार और जंगल सफारी कराता हूँ। प्रतिदिन ₹1,500 की कमाई होती है।”

शिक्षा, प्रशिक्षण और पर्यावरण के प्रति समझ
राजीब ने तितलियों, पक्षियों और सांपों पर आधारित शैक्षिक कार्यक्रम शुरू किए। उन्होंने पोस्टर बनाए, वर्कशॉप्स कराईं, और गांव के युवाओं को पर्यटन और जैव विविधता का विशेषज्ञ बनाया। आज 15 से अधिक युवक प्रशिक्षित गाइड बन चुके हैं जो असम की जैव विविधता को दुनियाभर के पर्यटकों तक पहुंचाते हैं।

प्लास्टिक-मुक्त गांव और स्थायी विकास
सरायपुंग आज एक प्लास्टिक-मुक्त गांव है। यहां इको-ईंट निर्माण और वर्मीकल्चर जैसे स्थानीय नवाचारों के जरिए सतत विकास को अपनाया गया है। यह गांव पर्यावरण-पर्यटन, शिक्षा और आजीविका का एक संतुलित मॉडल बन चुका है।
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निष्कर्ष
असम का सरायपुंग गांव बताता है कि सही दृष्टिकोण, समुदाय की भागीदारी और सशक्त नेतृत्व से कितनी बड़ी सामाजिक और पर्यावरणीय क्रांति लाई जा सकती है।
प्रोफेसर राजीब तारियांग का योगदान केवल एक गांव को बदलने तक सीमित नहीं है — यह एक ऐसी मिसाल है जिसे देशभर के अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में दोहराया जा सकता है।
यह कहानी सिर्फ जंगल के जानवरों को नहीं, बल्कि इंसानी सोच को भी बचाने की है — सचमुच, Hunters turned into wildlife protectors की एक जीवंत मिसाल।